भगवद गीता के पंद्रहवें अध्याय में छुपा है मानवीय जीवन का रहस्य
भगवद
गीता, हिंदू धर्म का एक
पवित्र ग्रंथ, अद्वितीय ज्ञान और आध्यात्मिकता का खजाना
है। इसके पंद्रहवें अध्याय में जीवन का गहरा रहस्य छुपा हुआ है, जो हमारे अस्तित्व और आत्मा की यात्रा को समझाने में महत्वपूर्ण भूमिका
निभाता है। इस ब्लॉग में हम पंद्रहवें अध्याय के प्रमुख श्लोकों के माध्यम से
मानवीय जीवन के रहस्य को उजागर करेंगे।
अध्याय का परिचय
पंद्रहवां
अध्याय, जिसे
"पुरुषोत्तम योग" कहा जाता है, में भगवान
श्रीकृष्ण संसार के वृक्ष का वर्णन करते हैं। यह अध्याय हमें संसार से परे आत्मा
की अद्वितीयता और परमात्मा से उसके संबंध को समझाता है।
श्लोक 15.1:
संसार का वृक्ष
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्॥"
अर्थ: इस श्लोक में
भगवान श्रीकृष्ण संसार को एक उल्टे पीपल के वृक्ष के रूप में वर्णित करते हैं,
जिसके जड़ें ऊपर और शाखाएँ नीचे की ओर हैं। यह श्लोक हमें संसार
की अस्थिरता और माया की शक्ति को समझने में मदद करता है।
व्याख्या: संसार का यह उल्टा वृक्ष बताता है कि इसकी जड़ें अध्यात्मिकता में हैं और शाखाएं भौतिक संसार में। इस वृक्ष की पत्तियाँ वेदों के मंत्र हैं जो हमें ज्ञान प्रदान करती हैं। हमें इस वृक्ष के वास्तविक स्वरूप को समझकर उसकी जड़ों तक पहुँचना चाहिए।
श्लोक 15.3-4: इस संसार वृक्ष को कैसे काटें
अश्वत्थमेनं सुविरूढमूलं असङ्गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा॥
ततः पदं तत्परिमार्गितव्यं यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूय:।
तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये यतः प्रवृत्ति: प्रसृता पुराणी॥"
अर्थ: इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण हमें संसार के इस वृक्ष को काटने का उपाय बताते हैं। इस वृक्ष को असंग (वैराग्य) के शस्त्र से काटकर हम उस पद को प्राप्त कर सकते हैं जहाँ से लौटना नहीं होता। यह हमें असली आध्यात्मिक मुक्ति की दिशा में प्रेरित करता है।
व्याख्या:
संसार के इस उल्टे वृक्ष का न अंत है, न
शुरुआत, और न ही इसका कोई स्थिर आधार है। इसे केवल
वैराग्य के दृढ़ शस्त्र से काटा जा सकता है। इसके बाद हमें उस परम पद की खोज करनी
चाहिए जहाँ से कभी लौटना नहीं होता। यह पद वही है जो हमारे वास्तविक स्वभाव और
आत्मा का निवास स्थान है।
श्लोक 15.5: माया से मुक्त
अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः॥"
अर्थ:
इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण बताते हैं कि जो व्यक्ति माया और
मोह से मुक्त हो जाता है, वह सच्ची आध्यात्मिकता प्राप्त
करता है। यह हमें यह सीखने के लिए प्रेरित करता है कि सांसारिक बंधनों से मुक्त
होकर ही हम आत्मा की शुद्धता को प्राप्त कर सकते हैं।
व्याख्या: माया (अहंकार और मोह) से मुक्त होने पर ही व्यक्ति सच्चे आध्यात्मिक पथ पर चल सकता है। उसे अपनी इंद्रियों और कामनाओं पर विजय प्राप्त करनी होती है। ऐसा व्यक्ति ही वास्तविक आत्मज्ञान प्राप्त कर सकता है और परमात्मा की ओर अग्रसर हो सकता है।
श्लोक 15.7: जीवात्मा का परमात्मा से संबंध
मन:षष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति॥"
अर्थ: इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि प्रत्येक जीव आत्मा उनका ही अंश है। यह हमें यह समझने में मदद करता है कि हम सभी परमात्मा का ही हिस्सा हैं और हमारी आत्मा अमर और शाश्वत है।
श्लोक 15.10-11: अज्ञानी और ज्ञानी की दृष्टि
विमूढा नानुपश्यन्ति पश्यन्ति ज्ञानचक्षुष:॥"
अर्थ: इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण बताते हैं कि अज्ञानी व्यक्ति आत्मा के इन कार्यों को नहीं देख पाता, जबकि ज्ञानी व्यक्ति ज्ञान की दृष्टि से इसे देख पाता है। यह हमें यह समझने में मदद करता है कि आत्मा का वास्तविक अनुभव ज्ञान और ध्यान के माध्यम से ही संभव है।
व्याख्या: अज्ञानी व्यक्ति आत्मा के शरीर में प्रवेश, स्थिति, और अनुभव को नहीं देख पाता, जबकि ज्ञानी व्यक्ति ज्ञान के नेत्रों से इसे स्पष्ट रूप से देखता है। इसका मतलब है कि आत्मा का अनुभव और समझ केवल आत्मज्ञान के माध्यम से ही संभव है।
श्लोक 15.15: भगवान की सर्वव्यापकता
वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम्॥"
अर्थ: इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण बताते हैं कि वह सभी के हृदय में स्थित हैं और स्मृति, ज्ञान और विस्मृति का स्रोत हैं। यह हमें यह याद दिलाता है कि परमात्मा सर्वत्र व्याप्त हैं और हमें सही मार्ग पर चलने के लिए मार्गदर्शन करते हैं।
व्याख्या: भगवान श्रीकृष्ण बताते हैं कि वह हर जीव के हृदय में निवास करते हैं और वही सभी प्रकार की स्मृति, ज्ञान और विस्मृति का कारण हैं। वेदों का सार और वेदांत का ज्ञान भी उन्हीं से आता है। इसका मतलब है कि हमारे सभी ज्ञान और अनुभवों का स्रोत परमात्मा हैं।
श्लोक 15.16-17:
क्षर और अक्षर पुरुष
क्षर: सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते॥
उत्तम: पुरुषस्त्वन्य: परमात्मेत्युधाहृत:।
यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वर:॥"
अर्थ: इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण बताते हैं कि संसार में दो प्रकार के पुरुष हैं - क्षर (नश्वर) और अक्षर (अविनाशी)। लेकिन सबसे उत्तम पुरुष परमात्मा हैं, जो तीनों लोकों में व्याप्त हैं और सबको धारण करते हैं।
व्याख्या:
भगवान बताते हैं कि संसार में दो प्रकार के पुरुष हैं - एक नश्वर
(क्षर) जो सभी भौतिक जीव हैं, और दूसरा अविनाशी (अक्षर)
जो आत्मा है। लेकिन सबसे श्रेष्ठ पुरुष परमात्मा (पुरुषोत्तम) हैं, जो तीनों लोकों में व्याप्त हैं और सबकुछ धारण करते हैं। यह हमें यह
समझने में मदद करता है कि परमात्मा ही सबके आधार हैं और हम सभी उनमें समाहित हैं।
अध्याय का सारांश
पंद्रहवां अध्याय हमें जीवन के वास्तविक उद्देश्य को समझने और आत्मा की अनंत यात्रा के रहस्यों को जानने का अवसर प्रदान करता है। यह अध्याय हमें माया से मुक्त होकर आत्म-साक्षात्कार की दिशा में प्रेरित करता है और परमात्मा से हमारे संबंध को गहराई से समझने में मदद करता है।
निष्कर्ष
भगवद गीता के पंद्रहवें अध्याय के माध्यम
से हमें यह ज्ञात होता है कि हमारा जीवन केवल सांसारिक सुखों और दुःखों तक सीमित
नहीं है,
बल्कि एक गहन आध्यात्मिक यात्रा है। इस अध्याय के श्लोक हमें
आत्मा की शुद्धता, माया से मुक्ति, और परमात्मा से संबंध की गहराई को समझने में सहायता करते हैं।
आप भी भगवद गीता के इस अध्याय का अध्ययन करें और जीवन के रहस्यों को जानें। इससे न केवल आपका जीवन समृद्ध होगा, बल्कि आपको सच्ची शांति और आनंद की अनुभूति भी होगी।

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